सिसकते जीवन का पलायन
सूरज की तपिश से तपती धरती पर कमजोर सी अंतिम सांसे गिनती टूटी फूटी चप्पल पर टिके अंधकार की ओर ठिलते जीवन की तस्वीर आज भारत की प्रत्येक राजमार्ग की नियति बन गई है। कोरोना त्रासद के बीच अपनी नियति को अपने कांधे पर लादे लाखों मजदूर परिवारों के लिए पलायन कोरोना से भी भारी त्रासदी बन गया है। आज देश के हर राजमार्ग पर भूख, प्यास, चिलचिलाती गरमी के बीच लाखों की संख्या में पलायन करते परिवार को देख कर सहज ही यह प्रश्न उठता है कि कल तक इनके पसीने से अपने व्यवसाओं को सींचते मालिकों की संवेदनाएं क्या इनके काम तक ही सीमित थीं । इनके वोटों के दम पर खरबों की अर्थव्यवस्था खडी करने वाली सरकारों के बूते इतना भी न था कि इन जिंदगियों को लाॅकडाउन के संकट में जीवन से पूरित रख पातीं ।
किसान परिवार में जन्म लेने के कारण मैने प्रतिकूल परिस्थितियों को बहुत गहराई से जिया है। किसान और मजदूर का रक्त रिसता है तो पसीने का निर्माण होता है और फिर उस पसीने से धरती सिंचती है या कारखाने का पहिया घूमता है। बयांलिस दिनो के लाक डाउन के बाद दिल्ली की ओर प्रस्थान मेरे अन्तःकरण को इस तरह से झकझोर डालेगा यह मैने सपने में भी नही सोचा था। रास्ते में प्रवासी मजदूरों के परिवारों को सडकों पर जीवन के लिए संघर्ष को देख कर स्वयं के होने पर ही प्रश्न खडे करने को मन करता है। लगता है कि सत्ता की चकाचौंध ने हमारे दायित्वों के बोध को तहस नहस कर डाला है। राजधानी भोपाल से राजधानी दिल्ली का सडक मार्ग एक भयावह परिस्थिति की गवाही दे रहा है अपने सर पर बोझ रख कर मासूमो को कांख में दबाए हजारों जिंदगियो का हर बढता कदम चुनौतियों से भरा हुआ है। चिलचिलाती गरमी, भूख प्यास से त्रस्त अपने अंधकार से भरे भविष्य को खुद से लपेटे कदम बढते ही जा रहें है। संविधान की प्रस्तावना, संसद और विधान सभाओं में बनती बिगडती सरकारों की परिभाषाओं से जैसे इनका कोई सरोकार ही ना हो वो शायद इनके लिये बनी ही नही है । इनके लिए सरकारें आज महज कुछ आंकडों और आरोप प्रत्यारोप का खेल मात्र बन कर रह गई हैं। सरकार के प्रतिनिधि यदि कुछ कदम इनके साथ चलें तो शायद उनको एहसास होगा कि पैर के छालों में भरा पानी जब दर्द बन कर आंखो से छलकता है तो उपर बैठे उस परम शक्तिशाली ईशवर की आंखे भी नम हो जाती है।
सरकारें आती जाती रहेंगी सत्ताओं पर काबिज चेहरे बदलते रहेंगे लेकिन क्या गरीबी के तले दबीं इन जिंदगियों को सिर्फ नियति के सहारे छोडना न्याय संगत लगता है। आंख मूंद लेने से या मात्र कुछ औपचारिकताएं पूरी कर लेने से इनके आंसुओं की कीमत नही चुकाई जा सकती। अब काफी देर हो चुकी है लेकिन अब भी सरकारें और तमाम व्यवस्थाऐं अपनी संवेदन शीलता को जगाते हुए इनकी खेवनहार बन सकती है।
भौगोलिक व जनसंख्या की दृष्टि यह देश बहुत बडा और जटिल देश है। यहां के लगभग चालीस करोड लोग अपनी रोजी रोटी के चलते प्रवास में रहते है जिनकी जानकारी को जुटाए रखना सहज नही। यदि सामान्य शब्दों में कहे तो प्रवासी मजदूरों की जानकारी जुटाने की ईमानदार कोशिश कभी की ही नही गई । आधुनिक भारत की अर्थव्यवस्था में बुनियादी भागीदारी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले ये प्रवासी मजदूर हमेशा से ही जीवन के सामान्य यापन से वंचित रहे। अपने बूते विभिन्न राज्यों के औद्योगिक व व्यावसायिक कारोबार में अपनी सशक्त भूमिका निभाने के उपरांत भी राज्य सरकारों ने इनसे सौतेला भेदभाव रखा। अब हमें सबकुछ भूलकर तुरंत इनकी सहायता के लिए आगे आकर इनके जीवन को टूटने से बचाना चाहिए ।
सभी राज्य सरकारों को चाहिये कि इनके मूल निवास से इनके बारे में जानकारी जुटाना आरम्भ करे । प्रथम दृष्टतया यह कार्य कठिन दिखता है लेकिन यदि वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाया जाए तो यह संभव हो सकता है। यदि प्रत्येक गांव के सरपंच और शहर के पार्षद को यह जिम्मेदारी दी जाए कि वो अपने गांव और अपने क्षेत्र के मजदूर जो प्रवास में है उनके सही स्थान की जानकारी इकट्ठा करे तो यह कार्य मात्र 48 घंटे में पूर्ण हो कर यह जानकारी सरकार तक पहुंच सकती है। इस जानकारी को संयोजित करने से राज्यों को यह पता लग सकता है कि उनके राज्य में किन स्थानों के लगभग कितने मजदूर हैं । एक बार यह जानकारी आने के बाद केन्द्र व राज्य सरकारें मिलकर पलायन को नियन्त्रित व व्यवस्थित कर सकती हैं । यह समय किसी भी प्रकार की राजनीति करने का नही है। सभी सरकारों और राजनीतिक दलो का यह कर्तव्य है कि इस समय सब मतभेद भूलाकर सामने आए और देश के निर्माण की इस मजबूत ईकाई को मानवीय आधार पर टूटने और बिखरने से बचाए।